भूले बिसरे खत…

चौराहे के भीड़ में एक सुना डाकघर नज़र आया, वक्त की दौड़ में शायद कहीं खो गया उसका साया
दिल जरा बैठ गया देखके उसका हवाल, मन उठे कुछ सवाल
लोग अब पहले जैसे खत क्यूं नहीं लिखते, डाकघर पहले जैसे अब क्यूं नहीं चहकते?
फुरसत में वक्त निकालकर खत लिखना, जाने क्यूं भूल गया है ज़माना ?
कभी सफेद पन्नों पर तो कभी गुलाबी, लिखें हुए शब्द बनते है बंद दिलों की चाबी
लिखने वाले की भावनाओं का कोलाहल, कभी प्यार मोहब्बत तो कभी रंजिश खलल
कागज़ पर लिखें शब्द कर देते है सब सरल, दे जाते है उम्मीद जवाब आएगा आज नहीं तो कल
खतों की और एक खास बात, उन्हें रख सकते हैं सालों अपने साथ
कभी पुराने डायरी के पन्नों में, कभी तकिए नीचे
उनमें लिखें हुए अल्फाज जी सकते हैं अनगिनत बार आंखे मिचे…
जतन किए कुछ खत, बन जाते है जिन्दगी की धूप में छत
कुछ तो छेड़ देते हैं ऐसा तराना, रेडियो पर लगा जैसे मनपसंद गाना कोई पुराना
जिन्दगी में कुछ खत तो जरूर लिखना, जिनमें दिल अपना भरपूर लिखना…
कोई हो जिसे लिख पाओ तो बेहतर, और ना हो तो ख़ुद को लिखना, पढ़ना तब, जब उम्र हो जाएं सत्तहत्तर!


~अमृता ताम्हणे

© 20.02.2025 The copyright and other intellectual property rights of this content and pictures are with the author and Soulसंवाद .

Leave a comment